नन्हा मन

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15 अक्तूबर 2009

कहानी- धन तेरस

नमस्कार बच्चो ,
अभी त्यौहारों का मौसम चल रहा है दुर्गा पूजा, दशहरा, करवा चौथ, धनतेरस, दीपावली, गोवर्धन पूजा, भैया दूज.....खूब मजे ले रहे है आप लोग। क्यों न ले आखिर हम भारत वासी हैं और हर त्योहार को उत्साह-उल्लास से मनाना तो हमारी परम्परा है। दीपावली के लिए तो आप सब ने सुन रखा होगा कि हम क्यों मनाने है?
दीपावली से दो दिन पहले "धनतेरस " का त्यौहार भी मनाया जाता है धन का अर्थ है लक्ष्मी और तेरस का अर्थ है तेरहवाँ दिन अर्थात् यह त्योहार कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि को मनाया जाता है इसको धन-त्रयोदशी भी कहा जाता है आपको पता है इस दिन लोग कुछ न कुछ खरीददारी अवश्य करते हैं। मुख्य रूप से बर्तन। आजकल तो सोने और चाँदी के गहने /बर्तन खरीदने का प्रचलन बढ़ रहा है और लोग इस दिन एक-दूसरे को उपहार भी बाँटने लगे हैं। चलो आज मैं आपको वो कहानी सुनाती हूँ जिसके साथ यह त्योहार जुड़ा है :-


समुद्र मंथन
धन तेरस की सुनो कहानी
कथा बड़ी ही जानी-मानी
इन्द्र था देवलोक का भूप
अति-सुन्दर था उसका रूप
धन-धान्य था अति अपार
स्वर्ग में सजता था दरबार
हो गया उसको बहुत अभिमान
भूल गया सबका सम्मान
अहम ने उसको कर दिया अन्धा
भूल गया वो सब मर्यादा
आए इक दिन ऋषि दुर्वासा
इन्द्र से मिलने की थी आशा
पर न इन्द्र ने दिया सम्मान
हुआ ऋषि का घोर अपमान
दे दिया देवराज को श्राप
जाओ लगेगा तुमको पाप
कुछ न रहेगा तेरे पास
यह मेरा है अटल अभिशाप
अब तो इन्द्र लगा पछताने
भूल पे अपनी आँसू बहाने
दानवों को अब मिल गया मौका
दे दिया देवराज को धोखा
लिया उन्होंने स्वर्ग को जीत
इन्द्र का सुख बन गया अतीत
हो गया उसका चेहरा मलीन
बन गया वो राजा से दीन
धनवंतरि
गए यूँ बीत बहुत से साल
आया वृहस्पति को ख्याल
क्यों न वह कोई करे उपाय
देवराज का कष्ट मिटाए
गया ब्रह्म विष्णु के पास
बोला मैं हूँ बहुत उदास
दुखी बड़ा है मेरा शिष्य
उज्ज्वल कर दो उसका भविष्य
सोचा उन्होंने एक उपाय
जो सागर मन्थन किया जाए
अमृत उसमें से निकलेगा
जो कोई उसका पान करेगा
हो जाएगा वह अमर
नहीं रहेगा फिर कोई डर
फिर से इन्द्र को मिलेगा राज
पर अति कठिन है यह सब काज
जो असुरों का मिल जाए साथ
तो बन जाए बिगड़ी बात
वृहस्पति ने दानवों को बुलाया
और अमृत का राज बताया
लालच में दानव आ गए
देवों के संग में मिल गए
मन्दराचल पर्वत को लाए
वासुकि नाग को रस्सी बनाए
मन्दराचल की बनी मथानी
मथने लगे सागर का पानी
सर्व-प्रथम निकला कालकुट
पी गए उसको जटा जुट
गले में अपने विष को दबाए
तभी शिव नील-कण्ठ कहलाए
उच्चश्रवा घोड़ा फिर आया
कल्पवृक्ष देवों ने पाया
कामधेनु गाय भी आई
उनके साथ फिर लक्ष्मी आई
आखिर में धनवन्तरि आया
अमृत कलश हाथों में उठाया
देव-दानवों का मन ललचाया
विष्णु ने मोहोनी रूप बनाया
अमृत देवों को पिलाया
स्वर्ग उन्हें वापिस दिलवाया
तेज इन्द्र ने फिर से पाया
दुर्वासा का श्राप मिटाया
***************************************
प्यारे बच्चो, "धनवन्तरि " को देवों का वैद्य भी कहा जाता है क्योंकि उसी के दिए अमृत
से देवो को अमरता और इन्द्र को अपना खोया तेज़ वापिस मिला था

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धनतेरस की सभी को हार्दिक बधाई एवम शुभ-कामनाएँ---सीमा सचदेव

1 टिप्पणी:

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