एक था चुन्नु एक थी मुनिया
दोनों इक दूजे की दुनिया
रेत के टीलों पर जाते
पैर पे अपने घर बनाते
थपथपा कर रेत जमाकर
धीरे से फ़िर पैर हटाकर
देख के मुनिया खुश हो जाती
सुन्दर सा फ़िर घर सजाती
उस पर एक बनाती कुटिया
जहां पे होगी उसकी खटिया
चुन्नु की भी जगह बनाती
खरी बात फ़िर कह सुनाती
देखो इधर कभी न आना
न ही आकर मुझे सताना
सुन कर चुन्नु आया पास
बोला तेरा घर तो खास
कहते ही पैर से ठोकर मारी
रही देख मुनिया बेचारी
बडे चाव से जिसे सजाया
चुन्नु नें उसे पल में गिराया
चुन्नु से मुनिया फ़िर रूठी
बोली तेरी बातें झूठी
तुम हो झूठे और मक्कार
नही मुझे तुम पर एतबार
बोली अब न मुझे बुलाना
न ही मेरे पास मे आना
मेरे घर को मारी लात
नहीं करनीमुझे तुमसे बात
मुंह फ़ेर कर गुस्सा होकर
खडी मुनिया कुछ दूर में जाकर
अब तो चुन्नु लगा पछताने
तरह तरह से उसे मनाने
देखो कुछ तो बोलो बात
क्या चाहिए तुमको सौगात
कहो तो पकडूं तेरे पांव
या ला दूं कागज की नांव
पर मुनिया ने नाक चढाया
चुनु को फ़रमान सुनाया
मुझे बना दो वैसा ही घर
कुटिया बन रही हो जिस पर
चुन्नु ने घर झट से बनाया
तरह तरह से उसे सजाया
फ़िर मुनिया को बुलाकर लाया
सुन्दर सा घर उसे दिखाया
झट से मुनिया ने मारा पैर
घर तो हो गया वहीं पे ढेर
खिलखिला कर हंस दी मुनिया
चुन्नु को ज्यों मिल गई दुनिया
चित्रकार- विनूता
बचपन की तरह गुदगुदा गयी यह कविता. आनंद आ गया.
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