छोटी नदी छोटी नदी
क्या कहती जाती हो?
रात-दिन दिन-रात
हरदम बहती जाती हो?
छोटी नदी छोटी नदी
कहां से आती हो?
बड़े-बड़े पत्थरों को
कैसे बालू बनाती हो?
छोटी नदी छोटी नदी
कितनी रफ्तार से गाती हो?
सुना है बहुत दूर तुम
सागर से मिलने जाती हो?
छोटी नदी छोटी नदी
कैसे खिलखिलाती हो?
बरसात में तुम तो
उफन-उफन जाती हो।
छोटी नदी छोटी नदी
बहते-बहते इठलाती हो
चांद-सूरज की रोशनी में
तुम कितना जगमगाती हो?
छोटी नदी छोटी नदी
क्या कहती जाती हो?
रात-दिन दिन-रात
हरदम बहती जाती हो।
नन्हा मन
बच्चों, बहुत खोजबीन के बाद, अचपन जी ने नन्हा मन पर उड़न तश्तरी उतारने में सफलता पाई ! देखा ? तो.. सी-बॉक्स में अपनी प्रतिक्रिया दो !
23 मई 2009
छोटी नदी
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सुंदर और मनभावन बाल कविता। सचमुच एक बाल कविता।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना ,पढ़ कर साफ़ लगता है सोमाद्री अपने बचपन में लौट गयी होंगी ,नंगे पाँव नदी किनारे गयी होंगी ,और किनारे बैठकर हाथों को बालू में डालकर ये कविता मन के कागज़ पर उकेर ली होगी ,बात मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ वो सिर्फ एक अखबारनवीस ही नहीं हैं ,वो प्रकृति,जीवन,मानवीय संवेदनाओं को बेहद खूबसूरती से जीने वाली अदभुत महिला हैं ,शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंआपकी कविता के नन्हे बाल मन के प्रश्नों ने तो सचमुच हमें भी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया ।
जवाब देंहटाएंइतनी प्यारी कविता के लिए बधाई ।
Bahut achchi kavita hai
जवाब देंहटाएंMadam Aap TO Bachpan Ki Bhawnaon M Bah Gyi. Sunder Kavita Ke Liye Badhayi
जवाब देंहटाएंbahut hi masoom si kavita likhi hai
जवाब देंहटाएंchoti nadi se baat karna bahut acha laga
shubkamnaoyeh ke saath
nira
bahut sundar baal kavita. waise chotee nadiyon se ham bade bhee kam baat karte. Badhee.
जवाब देंहटाएंbahut hi maasoom aur pyaari rachna..aur sath hi gyaanvardhak bhi...
जवाब देंहटाएंbadhai
man ko bha gayi
जवाब देंहटाएंwaah !!
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
नदी ने बताया
जवाब देंहटाएं----------------------------
मैं कहती हूँ - बढ़े चलो तुम,
कभी न रुकना थककर!
आती हूँ मैं दूर पहाड़ों
की गोदी से चलकर!
मेरे साथ चलें जो पत्थर,
आपस में टकराते हैं!
उनसे अलग हुए नन्हे कण
बालू बनते जाते हैं!
धीमे चलती हूँ समतल पर,
ढालों पर मैं जाती तेज़!
धीमा चलकर धीमा गाती,
तेज़ चलूँ तो गाती तेज़!
सचमुच सागर से मिलने मैं
बहुत दूर तक जाती हूँ!
इठलाती, गाती, बलखाती,
सबके मन को भाती हूँ!
जब बरखा से बढ़ता पानी,
मैं गरजूँ तब उफनाकर!
मेरी लहरें भी बढ़ जातीं,
मुझे हँसातीं जो खिलकर!
चंदा-सूरज के प्रकाश में,
इतनी जगमग करती मैं!
जितनी फूलों के गालों पर,
ओस सजावट करती है!
तीसरी बार पढ़ रहा हूँ !
जवाब देंहटाएंआज केवल एक ही शब्द काफ़ी होगा..
" विकल्पहीन और बेहतरीन "
बहुत सुन्दर...जिज्ञासा..हर मन की.
जवाब देंहटाएंसोमाद्री जी और रावेन्द्र जी दोनों की रचनाएँ बल मन को रुचेंगी.
जवाब देंहटाएं