मुर्गियों मे थी उसकी जान
बड़े प्यार से उनको रखता
थोड़े ही में गुजारा करता
इक दिन उसको मिला न काम
न ही थे खाने के दाम
भूख से वो हो गया बे

आया उसको एक ख्याल
क्यों न मुर्गी मार के खाए
खाकर अपनी भूख मिटाए
पकड़ ली उसने मुर्गी प्यारी
काटने की उसे की तैयारी
दया करो मुझ पर हे मालिक
तुम तो हो हम सब के पालक
जो तुम हमको यूँ मारोगे
कितने दिन तक पेट भरोगे
मानो जो तुम मेरी बात
दूँगी एक ऐसी सौगात
जिससे भूखे नहीं मरोगे
हम सब का भी पेट भरोगे
अण्डा सोने का हर दिन
दूँगी नित्य न होना खिन्न
अण्डा सोने का हर रोज़
हो गई अब किसान की मौज
अच्छे-अच्छे खाने खाता
घर वालों को भी खिलाता
हलवा पूरी मेवा खीर

कुछ दिन में ही हुआ अमीर
पर इक दिन ललचाया मन
है मुर्गी के पेट मे धन
क्यों न वह अब उसको मारे
मिल जाएंगे अण्डे सारे
एक बार में सब पाऊँगा
बडा किसान मैं बन जाऊँगा
आया जब यह मन में विचार
दिया उसने मुर्गी को मार
पर न एक भी अण्डा पाया
लालच में आ सब गंवाया
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जो न वो यूँ लालच करता
रोज एक अण्डा तो मिलता
बच्चो लालच बुरी बला
नही होता कुछ इससे भला
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चित्रकार- मनु बेतख्लुस जी
अच्छा लिखा है ...
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