बाल मन की कोमलता को सँवारने का समवेत प्रयास है, यह ब्लॉग... नन्हा मन !
बाल गीत:
आचार्य संजीव 'सलिल'
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
लंगडी खेलें.....*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
*************
बाल कविताओ के अकाल के इस दौड मे अच्छा प्रयास है
सुन्दर बाल कविता।
लंगडी का आनन्द ही कुछ और है।-Zakir Ali ‘Rajnish’ { Secretary-TSALIIM & SBAI }
आचार्य जी आपने तो सचमुच बचपन में पहुंचा दिया । आपकी कविता पढने के बाद मै भी अपने बेटे के साथ लंगडी खेलने लगी और बाद में आपको टिप्पणी लिख रही हूं । बहुत मजा आया....::::::))))))
सभी गुण-ग्राहियों को धन्यवाद.
मज़ा आ गया!
कैसा लगा.. अच्छा या बुरा ?कुछ और भी चाहते हैं, आप..तो बताइये ना, हमें !
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बाल कविताओ के अकाल के इस दौड मे अच्छा प्रयास है
जवाब देंहटाएंसुन्दर बाल कविता।
जवाब देंहटाएंलंगडी का आनन्द ही कुछ और है।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
आचार्य जी आपने तो सचमुच बचपन में पहुंचा दिया । आपकी कविता पढने के बाद मै भी अपने बेटे के साथ लंगडी खेलने लगी और बाद में आपको टिप्पणी लिख रही हूं । बहुत मजा आया....::::::))))))
जवाब देंहटाएंसभी गुण-ग्राहियों को धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंमज़ा आ गया!
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