छोटी नदी ने बताया
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सोमाद्रि शर्मा के नन्हे मन में उमड़े प्रश्न
और
रावेंद्रकुमार रवि के बाल-मन के उत्तर
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सोमाद्रि शर्मा के नन्हे मन में उमड़े प्रश्न
और
रावेंद्रकुमार रवि के बाल-मन के उत्तर
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--: प्रश्नोत्तर १ :--
छोटी नदी, छोटी नदी,
क्या कहती जाती हो?
रात-दिन, दिन-रात
हरदम बहती जाती हो?
मैं कहती हूँ - बढ़े चलो तुम,
कभी न रुकना थककर!
आती हूँ मैं दूर पहाड़ों
की गोदी से चलकर!
--: प्रश्नोत्तर २ :--
छोटी नदी, छोटी नदी,
कहाँ से आती हो?
बड़े-बड़े पत्थरों को
कैसे बालू बनाती हो?
मेरे साथ चलें जो पत्थर,
आपस में टकराते हैं!
उनसे अलग हुए नन्हे कण
बालू बनते जाते हैं!
--: प्रश्नोत्तर ३ :--
छोटी नदी, छोटी नदी,
कितनी राफ्तार से गाती हो?
सुना है बहुत दूर तुम
सागर से मिलने जाती हो?
धीमे चलती हूँ समतल पर,
ढालों पर मैं जाती तेज़!
धीमा चलकर धीमा गाती,
तेज़ चलूँ तो गाती तेज़!
सचमुच सागर से मिलने मैं
बहुत दूर तक जाती हूँ!
इठलाती, गाती, बलखाती,
सबके मन को भाती हूँ!
--: प्रश्नोत्तर ४ :--
छोटी नदी, छोटी नदी,
कैसे खिलखिलाती हो?
बरसात में तुम तो
उफन-उफन जाती हो!
जब बरखा से बढ़ता पानी,
मैं गरजूँ तब उफनाकर!
मेरी लहरें भी बढ़ जातीं,
मुझे हँसातीं जो खिलकर!
--: प्रश्नोत्तर ५ :--
छोटी नदी, छोटी नदी,
बहते-बहते इठलाती हो!
चाँद-सूरज की रोशनी में
तुम कितना जगमगाती हो?
चंदा-सूरज के प्रकाश में,
इतनी जगमग करती मैं!
जितनी फूलों के गालों पर,
ओस सजावट करती है!
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(फ़ोटो : शिकागो से दादी-नानी के सुझाव व उपलब्ध कराने पर जोड़ा गया)
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--: प्रश्नोत्तर १ :--
छोटी नदी, छोटी नदी,
क्या कहती जाती हो?
रात-दिन, दिन-रात
हरदम बहती जाती हो?
मैं कहती हूँ - बढ़े चलो तुम,
कभी न रुकना थककर!
आती हूँ मैं दूर पहाड़ों
की गोदी से चलकर!
--: प्रश्नोत्तर २ :--
छोटी नदी, छोटी नदी,
कहाँ से आती हो?
बड़े-बड़े पत्थरों को
कैसे बालू बनाती हो?
मेरे साथ चलें जो पत्थर,
आपस में टकराते हैं!
उनसे अलग हुए नन्हे कण
बालू बनते जाते हैं!
--: प्रश्नोत्तर ३ :--
छोटी नदी, छोटी नदी,
कितनी राफ्तार से गाती हो?
सुना है बहुत दूर तुम
सागर से मिलने जाती हो?
धीमे चलती हूँ समतल पर,
ढालों पर मैं जाती तेज़!
धीमा चलकर धीमा गाती,
तेज़ चलूँ तो गाती तेज़!
सचमुच सागर से मिलने मैं
बहुत दूर तक जाती हूँ!
इठलाती, गाती, बलखाती,
सबके मन को भाती हूँ!
--: प्रश्नोत्तर ४ :--
छोटी नदी, छोटी नदी,
कैसे खिलखिलाती हो?
बरसात में तुम तो
उफन-उफन जाती हो!
जब बरखा से बढ़ता पानी,
मैं गरजूँ तब उफनाकर!
मेरी लहरें भी बढ़ जातीं,
मुझे हँसातीं जो खिलकर!
--: प्रश्नोत्तर ५ :--
छोटी नदी, छोटी नदी,
बहते-बहते इठलाती हो!
चाँद-सूरज की रोशनी में
तुम कितना जगमगाती हो?
चंदा-सूरज के प्रकाश में,
इतनी जगमग करती मैं!
जितनी फूलों के गालों पर,
ओस सजावट करती है!
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(फ़ोटो : शिकागो से दादी-नानी के सुझाव व उपलब्ध कराने पर जोड़ा गया)
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बाल पाठको के लिए बढ़िया रचना .
जवाब देंहटाएंI like these questions and answers very much.
जवाब देंहटाएंThis process is very inspiring.
जिस तरह से नदी बहने के लिए कहीं भी अपना रास्ता बना ही लेती है, उसी तरह से इस प्रश्नोत्तरी ने मेरे मन में बहने के लिए रास्ता बना लिया है!
जवाब देंहटाएंबहुत बडिया प्रेरक कविता एक नये अन्दाज़ मे रवीन्द्रजी को बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंअच्छा प्रयास...
जवाब देंहटाएंछोटी नदी खिलखिलाई
जवाब देंहटाएंदेने लगी सृजकों को बधाई
कहा उसने बहते-बहते
पिरोते रहो शब्दों के गहने
अद्भुत और अनूठे प्रयास के लिए सृजकद्वय को बधाई!
जवाब देंहटाएंहमारे यहाँ पहाड़ों पर ऐसी सुंदर छोटी नदियाँ खूब हैं। ऐसी महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तरी मैंने पहले कहीं नहीं देखी-पढ़ी। इस कार्य के लिए दोनों रचनाकार बधाई के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंbahut badhiya ,swarbadh karke kavita me chaar chaand lag sakte hain .
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